यह महज़ संयोग हो सकता है कि जिस दिन संसद में धारा 370 को निरस्त करने का प्रस्ताव पारित हुआ, उसी दिन शाम को स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में संसद भवन पर की गयी रोशनी की जगमगाहट भी प्रारंभ हुई। निस्संदेह इस जगमगाहट में वह खुशी झलक रही थी, जो विवादग्रस्त धारा 370 की समाप्ति का स्वाभाविक परिणाम थी। जिस तरीके से "जम्मू-कश्मीर के पूर्ण विलय' का यह काम किया गया, उस पर विभिन्न मत हो सकते हैं, पर कभी न कभी यह काम होना ही था। विशेष परिस्थितियों में हमारे संविधान-निर्माताओं ने इस धारा की व्यवस्था की थी। भले ही तब इसके लिए कोई अवधि न निश्चित की गयी हो, पर कभी न कभी तो इस धारा को हटाया ही जाना था। देश की वर्तमान सरकार को यह समय उपयुक्त लगा और अपने चुनाव घोषणापत्र में किये गये वादे को उसने पूरा कर दिया। निश्चित रूप से सरकार ने इसके संभावित परिणामों की समीक्षा की होगी और यह भी सोचा गया होगा कि यह मामला उच्चतम न्यायालय में भी जा सकता है। इन स्थितियों से कैसे निपटा जायेगा, इस पर भी विचार हुआ होगा। आने वाले कुछ दिनों में यह सब सामने आ जायेगा। बहरहाल, आज की स्थिति यह है कि सरकार की इस कार्रवाई के तरीके से असहमत एक बड़े वर्ग के बावजूद, कुल मिलाकर देश इसका स्वागत ही कर रहा है। इसे लेकर एक खुशी का माहोल है देश में। और यह भी स्वाभाविक है कि सत्तारूढ़ पक्ष इस माहौल का राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास करे। स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री देश की जिन उपलब्धियों की चर्चा करेंगे, उनमें यह निर्णय प्राथमिकता की दृष्टि से प्रमुख स्थान लेगा, यह तय है। इसके साथ ही ट्रिपल तलाक से जुड़ा निर्णय भी सरकार का उपलब्धियों को सूची में ऊपर ही होगा। लेकिन इस बात का ध्यान रखा जाना ज़रूरी है कि हर्षोल्लास कहीं निश्चित रूप से धारा 370 हमारे संविधान हर्षोन्माद में न बदले। प्रधानमंत्री और की एक अस्थाई व्यवस्था थी। देश के पहले भारतीय जनता पार्टी को पूरा अधिकार है कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी यह बात वे चुनावी घोषणापत्र के एक वादे को पूरा कही थी। उन्होंने यह भी कहा था कि धारा करने का यश प्राप्त करें, लेकिन यह भी 35-ए जैसी व्यवस्था उत्तर-पूर्व के कुछ ज़रूरी है कि सही काम सही तरीके से होने इलाकों में भी है। इससे कश्मीर को भारत का जनमानस को अहसास भी हो। जिस का अभिन्न अंग होने की स्थिति में कोई तरीके से यह कार्य किया गया है, उसके अंतर नहीं पड़ता। पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी लिए सरकार के पास अपने तर्क हो सकते और फिर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने है, लेकिन यह सोचना भी जरूरी है कि जो भी जम्हरियत और कश्मीरियत का हवाला हुआ या किया गया, क्या वह बेहतर ढंग से देते हए समस्या के उचित समाधान का नहीं हो सकता था? अथवा नहीं होना चाहिए आश्वासन दिया था। बेहतर होता यदि इस था? क्या यह बेहतर नहीं होता कि सारे प्रकरण को एक 'विजय' के रूप में जम्हूरियत, इनसानियत और कश्मीरियत के प्रदर्शित करने का लालच छोड़कर राष्ट्रीय पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हित में लिये गये एक जनतांत्रिक निर्णय के आश्वासन को रेखांकित करते हुए जम्मू- रूप में सामने आने दिया जाता। न्याय होने कश्मीर की जनता को विश्वास में लेकर यह और न्याय होता हुआ दिखने वाली बात की ज़रूरी कार्रवाई की जाती? विपक्ष से तरह ही यह भी जरूरी है कि जनतांत्रिक सलाह-मशविरा करक इस कार्य को अजाम निणय जनतांत्रिक तरीक से लिये गये भी १ गये भी दिया जाता? दिखें निर्वाचित सरकार को पूरा अधिकार है कि वह संसद में आवश्यक कानून पारित नेता विपक्ष अपनी बात शांति से नहीं रख करवाये। उसका बहुमत उसे अधिकार भी सकते थे? चुनावी सभाओं या जनसभाओं में देता है कि वह अपनी नीतियों के अनुरूप शब्द-जाल या शारीरिक भाव-भंगिमा का कार्य करे। जनतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं कुछ स्थान, शायद, हो भी सकता है, पर की रक्षा का दायित्व हर नागरिक का होता धारा 370 को निरस्त करने के गंभीर मसले है, पर भारी बहुमत वाली सरकारों से अपेक्षा पर जिस तरह भाषण दिये गये या सदन में की जाती है कि वे इस बात की सावधानी जिस तरह का व्यवहार हुआ, वह चुभने बरतेंगी कि उन पर बहुमत का अनुचित लाभ वाला ही था। उठाने का आरोप न लगे। इसी के लिए संसद बहरहाल, अब जो स्थिति बनी है, उसमें में विचार-विमर्श के द्वारा आवश्यक कदमों यह जरूरी हो जाता है कि हम हर्षोन्माद में पर आम राय बनाने की कोशिश जरूरी जनतांत्रिक मर्यादाओं का सम्मान करें। समझी जाती है। पर दुर्भाग्य से, हमारे यहां सत्तारूढ़ पक्ष का दायित्व बनता है कि वह इस कोशिश का जो रूप अक्सर दिखाई देता इस संदर्भ में उठे सवालों के समुचित जवाब है, वह निराशाजनक ही होता है। विपक्ष को दे। यदि कुछ गलत हुआ है तो उसे ठीक साथ लेने की कोशिश करना एक करने का प्रयास हो। जम्मू-कश्मीर को एक स्वाभाविक स्थिति है, पर विपक्ष को कमजोर राज्य की जगह केंद्र-शासित प्रदेश बनाये बनाने की कला अक्सर जनतंत्र का मज़ाक जाने पर पुनर्विचार ज़रूरी है। गृहमंत्री ने उड़ाती-सी लगती है। विधानसभाओं या आश्वासन दिया है कि सही समय पर उसे संसद में विपक्ष के सदस्यों से इस्तीफे दिला फिर राज्य का दर्जा दिया जा सकता है। कर अपना बहुमत बनाने की सत्तारूढ़ दल, कोशिश होनी चाहिए कि वह सही समय या किसी की भी, कोशिश को जनतांत्रिक जल्द ही आये। जम्मू-कश्मीर की जनता को ईमानदारी का उदाहरण तो नहीं ही कहा जा इस सारी प्रक्रिया में उपेक्षित ही रखा गया सकता। तकनीकी दृष्टि से यह भले ही है। उसके जख्मों पर मरहम लगाना भी साफ-सुथरा तरीका लगता हो, पर इसे ज़रूरी है। भाजपा को लग सकता है कि किसी लालच या दबाव का परिणाम संसद में उसके पास बहमत है, वह कुछ भी समझना भी तो अस्वाभाविक नहीं है। कर सकती है। लेकिन जनतंत्र में बहुमत दुसरे, हमारे सदनों में जिस तरह बहस का यह भी दायित्व बनता है कि वह विपक्ष होती है, वह भी सवालिया निशानों के घेरे में का सम्मान करे। सुरक्षा और गोपनीयता के आनी चाहिए। तर्कसंगत तरीके से, शांतिपूर्ण नाम पर जिस तरह संसद को अंधेरे में रखा वातावरण में विचार-विमर्श क्यों नहीं हो गया, वह भी जनतांत्रिक मर्यादाओं का सकता हमारे सदनों में? क्यों हमारे उल्लंघन ही है।यह दुर्भाग्य ही है कि आज राजनेताओं को लगता है कि चीख- विपक्ष कमज़ोर है। स्वस्थ जनतंत्र में सक्षम चिल्लाकर, नाटकीय तरीके से अपनी बात सरकार के साथ-साथ मज़बूत विपक्ष भी रखना जरूरी है?धारा 370 वाले इसी ज़रूरी है। वस्तुत- यह चुनौती है हमारे प्रकरण में जिस तरह का दृश् प्रकरण में जिस तरह का दृश्य राज्यसभा में जनतंत्र के लिए। क्या हम इसे स्वाकार दिखा, वह क्यों ज़रूरी था? क्या गृहमंत्री या करने के लिए तैयार हैं?
जनतांत्रिक मर्यादाएंन भलें हर्षोन्माद में